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प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है । इसे बहुधा औषधि विहीन उपचार पद्धति कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहॉ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्न है इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है।
योग चिकित्सा सेवा
- योग मुख्यतः एक जीवन पद्धति है, जिसे पतंजलि ने क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत किया था। इसमें यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि आठ अंग है। योग के इन अंगों के अभ्यास से सामाजिक तथा व्यक्तिगत आचरण में सुधार आता है, शरीर में ऑक्सीजन युक्त रक्त के भली-भॉति संचार होने से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है, इंद्रियां संयमित होती है तथा मन को शांति एवं पवित्रता मिलती है। योग के अभ्यास से मनोदैहिक विकारों/व्याधियों की रोकथाम, शरीर में प्रतिरोधक शक्ति की बढोतरी तथा तनावपूर्ण परिस्थितियों में सहनशक्ति की क्षमता आती है। ध्यान का, जो आठ अंगो में से एक है, यदि नियमित अभ्यास किया जाए तो शारीरिक अहितकर प्रतिक्रियाओं को घटाने की क्षमता बढती है, जिससे मन को सीधे ही अधिक फलदायक कार्यो में संलग्न किया जा सकता है।
''योगशिचत्तवृत्ति निरोधः''
शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए अष्टाडंग योग की व्याख्या की गई जो निम्न प्रकार है।
यम- ''अंहिसासत्यास्तेयब्रहचर्यापरिग्रहा यमाः''
अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रहचर्य और अपरिग्रह को यम कहा गया है।
नियम- '' शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः''
शौच, संतोष, तप स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम कहे है।
आसन- '' स्थिर सुखमासनम्''
जो स्थिर एवं सुखदायक हो वह आसन कहा है।
- मोटे तौर पर योगासनों को तीन वर्गो में बांटा जा सकता है।
ध्यानात्मक आसन- यथा सिद्धासन, पद्मासन भद्रासन स्वस्तिकासन आदि।
विश्रांतिकर आसन- शवासन, विशेषताएं व लाभ दण्डासन, मकरासन आदि।
शरीर संवर्धनात्मक आसन- सिंहासन, गोमुकासन धनुरासन आदि
प्राणायाम- ''तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः''
आसन के स्थिर हो जाने पर श्वास प्रश्वास की गति को रोकना प्राणायाम कहा गया है।
यह बाह्यवृति, आभ्यान्तरवृति और स्तम्भवृति तीन प्रकार का कहा गया है।
प्रत्याहार- '' स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः''
अपने विषयो के साथ सम्बन्ध न होने पर चित्त के स्वरूप का अनुसरण करना इन्द्रियों का प्रत्याहार कहलाता है।
धारणा- '' देशबन्धशिचत्तस्य धारणा''
चित्त (मन) का वृत्ति मात्र से किसी स्थान विशेष में बांधना धारणा कहलाता है।
ध्यान- ''तत्र विशेषताएं व लाभ प्रत्ययैकतानता ध्यानम्''
उस (धारणा) में वृत्ति का एक सा बना रहना ध्यान कहलाता है।
समाधि- '' तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः''
जब केवल ध्येय ही अर्थ मात्र से भासता है और उसका स्वरूप शून्य हो जाता है वह ध्यान ही समाधि कहलाता है।
- उपरोक्त प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि उत्तरोत्तर श्रेष्ठतर अवस्थाएं है।
प्राकृतिक चिकित्सा सेवा
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प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है, अपितु यह एक जीवन पद्धति है । इसे बहुधा औषधि विहीन उपचार पद्धति कहा जाता है। यह मुख्य रूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है। जहॉ तक मौलिक सिद्धांतो का प्रश्न है इस पद्धति का आयुर्वेद से निकटतम सम्बन्ध है।
मिट्टी चिकित्साः-
मिट्टी जिसमें पृथ्वी तत्व विशेषताएं व लाभ की प्रधानता है जो कि शरीर के विकारों विजातीय पदार्थो को निकाल बाहर करती है। यह कीटाणु नाशक है जिसे हम एक महानतम औषधि कह सकते है।
मिट्टी की पट्टी का प्रयोगः-
उदर विकार, विबंध, मधुमेह, शिर दर्द, उच्च रक्त चाप ज्वर, चर्मविकार आदि रोगों में किया जाता है। पीडित अंगों के अनुसार अलग अलग मिट्टी की पट्टी बनायी जाती है।
वस्ति (एनिमा):-
उपचार के पूर्व इसका प्रयोग किया जाता जिससे कोष्ट शुद्धि हो। रोगानुसार शुद्ध जल नीबू जल, तक्त, निम्ब क्वाथ का प्रयोग किया जाता है।
जल चिकित्साः-
इसके अन्तर्गत उष्ण टावल से स्वेदन, कटि स्नान, टब स्नान, फुट बाथ, परिषेक, वाष्प स्नान, कुन्जल, नेति आदि का प्रयोग वात जन्य रोग पक्षाद्घात राधृसी, शोध, उदर रोग, प्रतिश्याय, अम्लपित आदि रोगो में किया जाता है।
सूर्य रश्मि चिकित्साः-
सूर्य के प्रकाश के सात रंगो के द्वारा चिकित्सा की जाती है।यह चिककित्सा शरीर मे उष्णता बढाता है स्नायुओं को उत्तेजित करना वात रोग,कफज,ज्वर,श्वास,कास,आमवात पक्षाधात, ह्रदयरोग, उदरमूल, मेढोरोग वात जन्यरोग,शोध चर्मविकार, पित्तजन्य रोगों में प्रभावी हैं।
सभी पेट के रोग, श्वास, आमवात, सन्धिवात, त्वक विकार, मेदो वृद्धि आदि में विशेष उपयोग होता है।
डीडीसी ने कहा: आमजनों को उत्पाद की विशेषता व लाभ के प्रति करें जागरूक
रजरप्पा स्थित छिन्नमस्तिका मन्दिर में रविवार को नमामि गंगे योजना अंतर्गत आजादी के अमृत महोत्सव के तहत दामोदर एवं भैरवी नदी के संगम विशेषताएं व लाभ के समीप “घाट पर हाट” कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में मुख्य रूप से मौजूद रामगढ़ डीडीसी नागेंद्र कुमार सिन्हा के द्वारा घाट पर हाट कार्यक्रम का विधिवत शुभारंभ किया गया। इस दौरान डीडीसी ने बारी बारी से सभी स्टालों का निरीक्षण किया।
अयोजित कार्यक्रम के दौरान मातंगी परियोजना के तहत नदियों तथा अन्य जल स्रोतों को स्वच्छ रखने के उद्देश्य से मंदिरों में श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए जाने वाले फूल व पत्तियों के माध्यम से बनाए जा रहे अगरबत्ती व गुलाल, जेएसएलपीएस द्वारा बनाए जा रहे विभिन्न उत्पादों, आंगनबाड़ी सेविकाओं एवं सहायिकाओं द्वारा पोषण को ध्यान में रखते हुए व झारखंड के पारंपरिक खाद्य व्यंजनों के स्टॉल लगाएं गए थे।
निरीक्षण के दौरान उप विकास आयुक्त ने लगाए गए स्टॉल की सराहना करते हुए स्टॉल पर प्रतिनियुक्त कर्मियों को विभिन्न उत्पादों व अन्य समानों की बिक्री के दौरान आम जनों को उत्पाद की विशेषता एवं उनके लाभ के प्रति भी जागरूक करने का निर्देश दिया। मौके पर चितरपुर बीडीओ चितरपुर उदय कुमार, प्रखंड विकास पदाधिकारी गोला संतोष कुमार, प्रखंड व अंचल स्तरीय अधिकारियों एवं कर्मियों सहित अन्य उपस्थित थे।
एकाकी व्यापार अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं या लक्षण
एकाकी व्यापार क्या है? एकाकी व्यापार का अर्थ (ekaki vyapar kya hai)
एकाकी व्यापार व्यावसायिक संगठन वह स्वरूप है जिसको केवल एक व्यक्ति स्थापित करता है। वही व्यक्ति आवश्यक पूंजी लगाता है, संचालन एवं प्रबंध करता है, लाभ प्राप्त करता है, हानि को सहन करता है और व्यापार का समस्त उत्तरदायित्व उसी एक व्यक्ति के कंधो पर होता है तथा लाभ-हानि का एकमात्र भाजक व वहनकर्ता भी वही होता है।
आगे जानेंगे एकाकी व्यापार की परिभाषा, एकाकी व्यापार की विशेषताएं।
एकाकी व्यापार की परिभाषा (ekaki vyapar ki paribhasha)
जेम्स स्टीफेंसन के अनुसार " एकाकी व्यापार वह व्यक्ति है जो व्यवसाय को स्वंय तथा अपने लिए ही करता है। इस प्रकार एकाकी व्यवसाय (व्यापार) का महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि वह व्यक्ति व्यवसाय को चलाने स्वामी ही नही होता। अपितु उसका संगठनकर्ता एवं प्रबन्धक भी होता है तथा सब कार्यों को करने अथवा हानि वहन करने के लिए उत्तरदायी होता है।"
सर्वश्री लुई हेने के शब्दों मे " एकाकी व्यापार व्यवसाय का वह स्वरूप है जिसका प्रमुख एक ही व्यक्ति होता है जो उसके समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है, उसकी क्रियाओं का संचालन करता है और लाभ-हानि का संपूर्ण भार स्वयं ही उठता है।"
बी. बी. घोष के अनुसार " एकाकी स्वामित्वधारी व्यवसाय मे, एक व्यक्ति की व्यवसाय का अकेला स्वामी होता है। वही व्यवसाय का प्रबंध और नियंत्रण करता है।"
डाॅ. जाॅन ए. शुबिन " एकाकी स्वामित्व व्यवसाय के अन्तर्गत एक ही व्यक्ति उसका संगठन करता है। उसका स्वामी होता है, अपने निजी नाम से व्यवसाय चलाता है।
किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार " एकाकी स्वामी अपने व्यवसाय से सम्बंधित समस्त बातों के लिए सर्वोच्च न्यायाधीश (अधिकारी) होता है, परन्तु देश के सामान्य नियमों तथा उसके व्यवसाय पर प्रभाव डालने वाले नियमों का पालन करते हुए।"
एकाकी व्यापार के प्रमुख लक्षण एवं विशेषताएं (ekaki vyapar visheshta)
1. कार्य क्षेत्र की निर्धारित सीमा
एकाकी व्यापार का कार्य-क्षेत्र व्यापार की सीमाओं मे सीमित होता है। अकेला होने के कारण वह अनेक स्थानों पर कार्य न करके एक स्थान पर कार्य-क्षेत्र सीमित करता है।
2. एकल स्वामित्व
व्यवसाय का स्वीम एक ही व्यक्ति होता है जो व्यापार की समस्त बातों के लिए उत्तरदायी होता है। वह स्वयं जोखिम उठाता है। व्यवसाय की समाप्ति पर वह समस्त संपत्ति का अधिकारी होता है।
3. असीमित दायित्व
एकाकी व्यापार के यह भी विशेषता है कि इसके मालिक का दायित्व उसके द्वारा प्रदत्त पूँजी तक ही सीमित नही रहता अपितु उसकी निजी सम्पत्ति का भी प्रयोग व्यापार के दायित्व का चुकता करने के विशेषताएं व लाभ लिए जा सकता है।
4. ऐच्छिक आरंभ और अन्त
एकाकी व्यापार का एक लक्षण यह भी है कि एकाकी व्यापारी अपनी इच्छा से जब चाहे तब अपनी मर्जी से व्यवसाय आरंभ कर सकता है और उसे समाप्त भी कर सकता है।
5. सीमित प्रबंध कुशलता
प्रायः ऐसे संगठन का प्रबंध उसके मालिक के द्वारा ही किया जाता है। कभी-कभी, उसके परिवार के सदस्य भी उसमे भाग लेते है। आकार के बड़े होने पर ही कुछ दशा मे योग्य प्रबन्धक नियुक्त किये जाते है परन्तु सीमित धन होने के कारण अधिक योग्य प्रबन्धक की सेवाएं ये नही प्राप्त कर पाते।
6. वैधानिक शिष्टाचार से मुक्ति
एकाकी व्यापार को स्थापित करने के लिए किसी प्रकार की वैधानिक कार्यवाही नही करनी पड़ती है अर्थात् इसके लिए रजिस्ट्री आदि की आवश्यकता नही होती।
7. व्यापार के चुनाव मे स्वतंत्रता
एकाकी व्यापार की एक विशेषता यह भी है की एकाकी व्यापारी को इच्छानुसार कोई भी व्यापार चुनने की स्वतंत्रता होती है, परंतु यदि एक ऐसा व्यापार आरंभ करने जा रहा है जिसके लिए सरकारी अनुज्ञा-पत्र जरूरी है तो उसे प्राप्त करना भी जरूरी है।
8. पूँजी पर एकाधिपत्य
एकाकी व्यापार मे लगाई जाने वाली पूंजी का प्रबंध एकाकी व्यापारी को स्वयं करना पड़ता है। वह कुल पूंजी या तो अपने पास से लगाता है अथवा अपने मित्रों या रिश्तेदारों से ऋण लेकर व्यापार मे लगाता है।
9. सम्पूर्ण जोखिम व लाभ मालिक का
व्यापार के मालिक को ही सम्पूर्ण जोखिम उठाना पड़ता है तथा वही हानि का वहन करता है। साथ ही, लाभ होने पर सम्पूर्ण लाभ भी उसी का होता है।
लाभ और विशेषता में क्या अंतर है?
इसे सुनेंरोकेंउत्पाद की विशेषताएं उत्पाद विशेषताओं को परिभाषित करती हैं, जो तकनीकी, भौतिक या वर्णनात्मक हो सकती हैं। इसके विपरीत, लाभ ग्राहकों को उत्पाद या सेवा खरीदने के लिए कारण देते हैं, अर्थात उत्पाद किस अर्थ में उनके लिए उपयोगी है या यह उनके जीवन में क्या सुधार कर सकता है।
लाभ से आपका क्या अभिप्राय है?
इसे सुनेंरोकेंलाभ खरीद और वितरित माल और / या सेवाओं के घटक लागत और किसी भी ऑपरेटिंग या अन्य खर्चों के बीच का अंतर है।
आप अंतर प्रक्रिया लाभ से विशेषताएं व लाभ क्या मतलब है?
इसे सुनेंरोकेंअंतर होने की स्थिति में देश को व्यापार से लाभ प्राप्त होता है। लेकिन यदि लागतों में समान अंतर पाया जाता है विशेषताएं व लाभ तो उस स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से कोई लाभ प्राप्त नहीं होगा।
उदार चरित व्यक्ति की क्या विशेषता?
इसे सुनेंरोकेंAnswer: उदार व्यक्ति परोपकारी होता है। वह अपना पूरा जीवन पुण्य व लोकहित कार्यो में बिता देता है। किसी से भेदभाव नहीं रखता, आत्मीय भाव रखता है।
उपार्जित लक्षण क्या है?
इसे सुनेंरोकेंउपार्जित लक्षण क्या है? वैसे लक्षण जिसे कोई जीव अपने जीवन काल में अर्जित करता है, उपार्जित लक्षण कहलाता है। यह लक्षण पर्यावरण के विभिन्न घटकों के साथ लगातार क्रियान्वित होने पर उत्पन्न होते हैं।
लाभ में वृद्धि क्या है?
इसे सुनेंरोकेंयह निवेश आय तथा लाभ में होने वाले परिवर्तनों से प्रेरणा प्राप्त करता है। आय तथा लाभ के बढ़ने की सम्भावना से यह बढ़ता है तथा इसमें होने वाली कमी से यह कम होता जाता है। प्रेरित निवेश लाभ या आय सापेक्ष होता है। प्रेरित निवेश प्रायः निजी क्षेत्र में किया जाता है।
क्या लक्षण और विशेषता एक ही है?
इसे सुनेंरोकेंलक्षण दिखता है जबकि विशेषता बाद मे महसूस होती है। पीड़ा और संवेदना में क्या अंतर है? पीड़ा का मतलब ” दुख ,दर्द ” होता है।
विशेषताएं मतलब क्या होता है?
इसे सुनेंरोकेंविशेष होने की अवस्था, भाव या गुण; ख़ूबी; विशिष्टता।
मनुष्य के कितने लक्षण होते हैं?
इसे सुनेंरोकेंसमुद्रशास्त्र में पुरुषों के शुभ लक्षण और गुण बताते हुए कहा गया है कि भाग्यभाशाली और महापुरुषों के यह 7 अंग लाल होते हैं।
विशिष्टता को हिंदी में क्या कहते हैं?
इसे सुनेंरोकेंविशेषता ; वैशिष्ट्य। 1. विशिष्ट का भाव या धर्म ।
लाभ का सिद्धांत क्या है?
इसे सुनेंरोकेंराष्ट्रीय आय में से उद्यमी को मिलने वाला भाग लाभ कहलाता है। एक उद्यमी का मुख्य कार्य अनिश्चितता को सहन करना या जोखिम उठाना होता है। उद्यमी को इन कार्यों के बदले में जो आय प्राप्त होती है, उसे लाभ कहा जाता है।
प्रक्रिया परिव्ययांकन क्या है?
इसे सुनेंरोकेंबी. के. भार के अनुसार, “प्रक्रिया परिव्ययांकन एक या विशेषताएं व लाभ अधिक प्रक्रियाओं की लागत ज्ञात करने की एक विधि है जो कि कच्ची सामग्री को निर्मित उत्पाद में रूपान्तरित किये जाने से सम्बद्ध हैं।”
केन्द्रीयकरण का अर्थ परिभाषा विशेषताएँ लाभ एवं दोष
केन्द्रीकरण का तात्पर्य है , सत्ता को संगठन के उच्च स्तर पर केन्द्रित करना। इस व्यवस्था के अन्तर्गत नीति निर्धारण एवं निर्णय लेने की शक्ति को प्रशासनिक संगठन के उच्च अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में रखा जाता है तथा संगठन के निचले स्तर के अधिकारी निर्देश , सलाह तथा स्पष्टीकरण हेतु ऊपरी स्तर के अधिकारियों पर निर्भर रहते हैं।
केन्द्रीयकरण की परिभाषा
लोक प्रशासन के विभिन्न विचारकों ने इस सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। इन्हें समझने का प्रयास करें
हेनरी फेयोल के अनुसार केन्द्रीयकरण की परिभाषा
“ संगठन में अधीनस्थों की भूमिका को कम करने के लिए जो भी कदम उठाये जाते हैं , वे सब विकेन्द्रीयकरण के अन्तर्गत आते हैं।"
कुण्टज ' ओ ' डोनेल के अनुसार केन्द्रीयकरण की परिभाषा
“ केन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीकरण में ठीक उतना ही अन्तर है , जितना कि ठण्डे और गरम में पाया जाता है। ”
लुइस ए 0 ऐलन के शब्दों में केन्द्रीयकरण की परिभाषा
“ केन्द्रीयकरण से आशय है कि किये जाने वाले कार्य के सम्बन्ध में अधिकांश निर्णय उन व्यक्तियों द्वारा नहीं लिये जाते हैं जो कि कार्य कर रहे हैं , अपितु संगठन के उच्चतर बिन्दु पर लिये जाते हैं। ”
केन्द्रीयकरण की विशेषताएँ
उपरोक्त परिभाषाओं के विवेचन के उपरान्त संगठन की निम्नलिखित विशेषताऐं सामने आती हैं। जो इस प्रकार हैं
1. केन्द्रीयकरण के अन्तर्गत संगठन के समस्त अधिकार एक ही व्यक्ति के पास केन्द्रित कर दिये जाते हैं और वह व्यक्ति ही उपक्रम के सम्पूर्ण कार्यों का निर्देशन करता है।
2. केन्द्रीयकरण व्यक्तिगत नेतृत्व में सहयोगी होता है।
3. एकीकरण व समन्वय सुगम व श्रेष्ठतर होता है।
4. नीतियों , व्यवहारों व कार्यवाहियों में एकरूपता रहती है।
5. आपातकालीन परिस्थितियों और संकट का सामना आसानी से हो सकता
6. योजनाओं तथा प्रस्तावों की गोपनीयता बनाई रखी जा सकती है।
7. इसके अन्तर्गत निर्णय परिचालन स्तर पर लेने के बजाए शीर्ष प्रबन्धकों के स्तर या उच्चतर बिन्दु पर लिये जाते हैं।
8. अधिकारों का केन्द्रीयकरण केवल उसी सीमा तक किया जाना चाहिए जो कि श्रेष्ठतम निष्पादन के लिए आवश्यक हो । केन्द्रीयकरण की कोटि का निश्चय संगठन की प्रकृति तथा उसके आकार को ध्यान में रखकर किया जाता है।
केन्द्रीयकरण से संगठन क्या लाभ प्राप्त होते हैं?
एकीकृत व्यवस्था
- संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उच्च अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थों को केन्द्रीयकृत आदेश एवं निर्देश देना अत्यन्त आवश्यक होता है। चूँकि केन्द्रीकरण के अन्तर्गत निर्णय शीर्ष अधिकारियों द्वारा लिये जाते हैं , जिससे आदेशों एवं निर्देशों में एकता बनी रहती है। एक क्रम में चलते हुए यह एकीकृत व्यवस्था को जन्म देता है।
क्रियाओं की एकरूपता
- केन्द्रीकरण के अन्तर्गत संस्था के समस्त विभागों को आदेश एक ही केन्द्र-बिन्दु से प्राप्त होते हैं , जिससे इन विभागों की क्रियाओं एकरूपता बनी रहती है। निर्णयों में में भी एकरूपता रहती है। इस प्रकार सम्पूर्ण संगठन की क्रियाओं में एकरूपता का प्रदर्शन होता है ।
संकटकाल में सहायक
- प्रशासन जितना केन्द्रित होगा , आपातकालीन निर्णय उतना ही शीघ्रता से लिया जा सकेगा। आपातकाल में सोचने-विचारने का समय कम होता है तथा गलत निर्णय लेने पर परिणाम नकारात्मक भी हो सकते हैं। अतैव केन्द्रीकरण के द्वारा संकटकालीन समस्त निर्णय शीर्षस्थ अधिकारी लेते हैं , जिससे अधीनस्थ चिन्तामुक्त रहते हैं।
प्रशासन में केन्द्रीकरण के दोष
यूँ तो केन्द्रीकरण से उपरोक्त लाभ एक संगठन के होते हैं , फिर भी प्रत्येक अवधारणा के जहाँ लाभ होते हैं , वहीं उसकी कुछ हानियों भी होती है। अध्ययन की पूर्णता की दृष्टि से इसके निम्नलिखित दोषों को समझने का प्रयास करें
विकास में बांधक
- उच्च अधिकारियों पर कार्यभार अधिक हो जाने से विलम्ब के साथ-साथ अकुशलता भी बढ़ सकती है।
उच्च स्तरीय प्रबन्ध का बोलबाला
- केन्द्रीकरण में शीर्ष प्रबन्ध एवं विभागीय प्रबन्ध के बीच सदैव टकराव की स्थिति बनी रहती है , क्योंकि समस्त अधिकार एवं निर्णय लेने की दक्षता वरिष्ठ अधिकारियों में समाहित कर दी जाती है।
संदेशवाहन में अप्रभावी
- अधिकारों और उत्तर दायित्वों के मध्य असन्तुलन भी होता है। केन्द्रीकरण का यह असन्तुलन अधिकारियों और कर्मचारियों के मध्य सम्प्रेक्षण प्रणाली को भी हानि पहुँचता है।
संगठन में निराशा
- केन्द्रीकरण में कर्मचारी प्रेरणा का अभाव रहता है तथा उनका मनोबल बढ़ाने के लिए कोई स्पष्ट युक्ति का प्रयोग नहीं होता , जिससे कर्मचारियों का उत्साह व मनोबल गिरता है , जिससे नियन्त्रण शिथिल हो जाता है।
निर्णयों में देरी
- वरिष्ठों एवं कर्मचारयों के बीच संघर्ष की आशंका निरन्तर बनी रहती है तो निर्णयों में विलम्ब सामने आता है। कागजी कार्यवाही जटिल हो जाती है।
संक्षेप में केन्द्रीकरण की अवधारणा का लक्ष्य केन्द्रीयकृत कार्य करना है। जिसके लिए अधिकारियों की शाक्ति संगठन के शीर्ष स्तर पर केन्द्रीकृत कर ली जाती है। किन्हीं परिस्थितियों में ये अच्छा परिणाम दे सकते हैं और कभी नकारात्मक परिणाम भी दे सकते हैं।
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